चम्बल में अपहरण उद्योग, कौन है दोषी, कौन जिम्मेवार ?


भाग-1नरेन्द्र सिंह तोमरआनन्द 

चम्बल घाटी जहाँ सरसों और देशी घी के लिये जगत्प्रसिध्द है, वहीं यहाँ के रण बांकुरों द्वारा देश की सीमा पर अपना लहू बहाने में भी यह कभी भी पीछे नहीं रही, बाबर ओर हूमांयूं से लेकर सिकन्दर लोधी और इब्राहीम लोधी तक फिर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और बाद में देश के आजाद होने के बाद हर लड़ाई और हर मोर्चे में फतहयाबी के लिये रक्त व प्राणों के उत्सर्ग की दास्तां चम्बल के चप्पे चप्पे पर दर्ज है ! मीलों तक फैला पड़ा जीर्ण व नष्टप्राय: हालत में पहुँच चुके ऐतिहासिक पुरावशेष चम्बल के भव्य संघर्ष की दास्तां का विराट इतिहास खुद ही बयां करते हैं ! चम्बल के गहन भरकों में जहाँ एक ओर इतिहास के अनेक सर्ग छिपे हैं वहीं दूसरी ओर रमणीयता और सुरम्यता में भी घाटी का कोई मुकाबला नहीं ! चम्बल के जंगल में तथा साथ ही संलग्न कोसों तक पसरे नजदीकी अंचल में अनेक मनोरम दृश्यों की भरमार है ! वीरों की इस भूमि ने राजा अम्बरीश और अम्ब मुनि से लेकर तोमर राजवंश के महा प्रतापी राजा मान सिंह तोमर से लेकर स्वतंत्रता संग्राम के अमिट हस्ताक्षर काकोरी के महा नायक रामप्रसाद विस्मिल तक को जन्म दिया ! अपने विकट व अदभुत सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक गौरव में चम्बल की धरती पर एक बदनुमा दाग बनकर कलंक के रूप में अभिशाप बने यहाँ के डकैत और अपहरण संस्कृति ने चम्बल की कई अमूल्य धरोहरों, गौरवशाली संस्कृति, अमिट इतिहास और अदभुत पर्यटनीय आकर्षण क्षमता तथा विकट औद्योगिक व प्रौद्योगिकीय संभावनाओं को मानो ग्रहण लगा दिया है ! आज इस महत्वपूर्ण घाटी को महज एक ही नाम और एक ही संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में जाना जा रहा है और वह है यहाँ की डकैत एवं अपहरण संस्कृति ! चम्बल के डकैतों और अपहरण संस्कृति के इतिहास में जायें तो सत्य काफी कड़वा है और चम्बल घाटी के तब से अब तक की लम्बी ऐतिहासिक यात्रा पर सिंहावलोकन न केवल शर्मनाक मंजर प्रस्तुत करता है बल्कि यह सोचने पर भी बाध्य करता है, कि आखिर विकट ऊर्जा शक्ति व रचनात्मक व अतुलनीय निर्माण व कल्पना क्षमता से परिपूर्ण चम्बल के नौजवानों के सामने डकैती व अपहरणजैसे बदनाम व आपराधिक कार्य ग्लैमर बनकर या मजबूरी बनकर क्यों पनप रहे हैं ! पहले किसी जमाने में जब डकैत हुये तो किसी कारण विशेष या मजबूरी में ही उनके हाथों में हथियारों की आमद हुयी ! न तो किसी ग्लैमर के कारण और न धन कमाने की किसी इच्छा के तहत ही हल फावड़ा छोड़ बन्दूकें थामीं ! पुराने डाकुओं का इतिहास व संस्कृति मर्यादित व सम्मान प्रद होकर गरिमापूर्ण रही, मसलन उद्देश्य विशेष के लिये बन्दूक थामने वाले हाथों ने अत्याचार व अन्याय से स्वयं को दूर रख कर मर्यादा पालन की ही चेष्टायें कीं और अच्छे इन्सान के तौर पर अपनी पहचान बनायीं ! उन्होंने स्वयं को डकैत के बजाय बागी कहना व कहलाना ही पसन्द किया ! आजकल के डकैत व पुराने बागीयों में जमीन आसमान का अन्तर नजर आता है, मसलन जहाँ डकैती अब ग्लैमर का और रोजगार का साधन बन कर एक व्यवसाय रूप में परिणित होती जा रही है वहीं अपहरण आय का साधन और उद्योग का रूप धारण करता जा रहा है ! डकैत अब प्रोफेशनल एवं नेटवर्क युक्त व अत्याधुनिक हथियारों व संसाधनों से समृध्द व सम्पन्न हो गये हैं वहीं उनके उच्च स्तरीय सम्पर्कों व तालमेल ने भी समाज व राष्ट्र के सामने चिन्ता व भय के साथ आक्रोश का मंजर फैलाया है !आज जब अखबारों की सुर्खियां एक नई खबर सुनातीं हैं कि अमुक का अमुक जगह से अपहरण हुआ तो डकैत व अपहरण जनमानस में रचनात्मक शक्ति सम्पन्न लोंगों को उद्वेलित कर झकझोर देते हैं ! पहले किसी जमाने में मजबूरी आदमी को डकैत बनाती थी और इस मजबूरी के लिये चम्बल में एक कहावत कही जाती है कि , जर, जोरू और जमीनके कारण आदमी डकैत बनता है, किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह अवधारणायें लगभग असत्य सी होकर, डकैत बनना एक शौक व शिगूफा बन कर रह गयीं हैं ! पूर्व डकैत और एक बानगी चम्बल के पुराने डकैतों पर एक बानगी डाली जाये तो, पुराने लगभग सभी डकैतों पर राजतंत्रीय संस्कृति व प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, पूर्व डकैत जहाँ खुद को डकैत के बजाय बागी कहाना पसन्द करते थे और न्याय प्रियता व मदद प्रियता में यकीन करते थे वहीं उनके मानवीय नीति और सहृदयता की दास्तानों से भी इतिहास समृध्द है ! उसमें वीरता व बहादुरी के साथ सामाजिक संरक्षण भी उन्हें भरपूर प्राप्त था ! काकोरी की रेल डकैती के महा नायक रामप्रसाद विस्मिल चम्बल के ही बेटे थे ! मुरैना जिला की अम्बाह तहसील के एक गांव बरबाई में एक किसान के बेटे के रूप में जन्मे इस अमर शहीद को भला कौन नहीं जानता होगा ? जिसने स्वतंत्रता संग्राम में डकैत बन कर एक इतिहास का एक अमिट पृष्ठ लिख डाला ! यह जग जाहिर है और भारी विडम्बना भी कि इस अमर शहीद की भूमिका, महत्ता व वर्णन भारत के इतिहास में आज तक एक डकैत के रूप में ही दर्ज है ! लेकिन विस्मिल के डकैत होने पर एक गर्व का अहसास देश को होता है और चम्बल वासीयों का सिर फख्र से तन जाता है ! लेकिन मूल बात तो वही है, कि विस्मिल डकैत नहीं बागी कहे जायें तो बेहतर है, स्वतंत्रता संग्राम के इस महानायक को डकैत कह कर पुकारना भारत के उन सभी शहीदों का अपमान होगा जो देश को आजाद कराने के लिये आक्रोश व उग्रता से सक्रिय रहे ! स्वतंत्रता के महा समर में अनेक बागी और भी चम्बल में हुये तथा अंग्रेजी हुकूमत के लिये कई प्रकार से सिरदर्द बने लेकिन उनका जिक्र कम ही आता है ! बाद वाले बागीयों की जानी मानी फेहरिस्त काफी लम्बी है, यदि छिटपुट बागीयों और डकैतों को छोड़ दें तो डोंगर, बटरी, सुल्तान सिंह, पुतली बाई, मान सिंह, रूपा, लाखन, माधौ सिंह, मोहर सिंह, माखन सिंह, मलखान सिंह, तहसीलदार सिंह आदि तक एक जमात ऐसी है जो डकैत के बजाय बागी कह कर सम्बोधन की अभिलाषी है ! जयप्रकाश नारायण व सुब्बाराव के साझा प्रयासों के चलते चम्बल का सबसें महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय बागीयों का आत्म समर्पण सन् 1972 में हुआ ! जिसका चम्बल के इतिहास में खासा महत्व व पृष्ठांकन है ! इसके बाद मलखान सिंह का समर्पण ही एक और बड़ा आत्मसमर्पण था ! ऐतिहासिक दस्तावेज और पुलिस अभिलेख जहाँ डकैतों के बारे में कुछ भिन्न कहानीयां बयां करते हैं तो वहीं चम्बल के आम आदमीयों में डकैतों के बारे में अलग दास्तानें कही सुनी जाती हैं ! खैर सत्य कुछ भी हो इतना स्वमेव स्पष्ट है कि चम्बल के बागीयों की एक जमात न केवल महिमा मण्डित है और चम्बल के लोगों में सम्मान प्राप्त भी है ! रही सही कसर डकैतों पर लिखीं गयीं ढेरो सच्ची झूठी कहानियों, किस्सों, उपन्यासों और फिल्मों ने पूरी कर दी ! चम्बल के डकैतों पर लिखा गया और फिल्माया गया बहुत कुछ मैंने पढ़ा और देखा है ! चम्बल के डकैतों को महिमा मण्डित करते करते लेखकों ने चम्बल को बदनाम कर डाला, और सुरम्य चम्बल को हौआ बना डाला, और इसे दहशतवाद की घाटी तथा लुटेरों की घाटी न केवल सिध्द कर डाला अपितु भारी बुरी तरह प्रचारित भी कर डाला ! परिणाम यह हुआ कि यहाँ की सारी रचनात्मक शक्तियों के आगे बढ़ने के रास्ते भी बन्द हो गये, और आज हालात यह हैं कि भारत तो क्या विश्व में आप कहीं भी जाइये यदि आप चम्बल घाटी के हैं तो न तो कोई आपको मकान ही किराये पर देगा, न किसी उच्च शिक्षण या बेहतर शिक्षा संस्था में प्रवेश और न कोई आपको काम पर रखना पसन्द करेगा न अपनी संस्था से आपको जोड़ेगा ! अफसोस जनक यह रहा है कि चम्बल पर या उसके डकैतों पर कलम अधिकतर उन लोगों ने चलाई जिनका असल में न तो चम्बल से कभी कोई सरोकार रहा न चम्बल की अन्दरूनी जिन्दगी का कोई ज्ञान ही जिन्हें रहा ! चम्बल के उन पहलुओं पर बहुत कुछ अनर्गल व अनाप शनाप लिखा गया जो कि सरासर काल्पनिक और मनगढ़न्त थे ! कई बातें तो सरासर गलत और चम्बल के जनजीवन संस्कृति से कतई मेल नहीं खातीं ! ऐसे लेखक और फिल्मकार जहाँ बाहरी व चम्बल से अनभिज्ञ थे वहीं डकैतों के बारे में एक पक्षीय या सुनी सुनायीं बातों पर कल्पनाओं के सागर में उड़ानें भरकर कलम चलाते रहे हैं ! चम्बल की सच्चाई अभी तक चम्बल अपने ऑंचल मे समेटे है ! चम्बल पर चली कलम यदि किसी डकैत के बारे में डकैत पक्ष ने चलवाई तो डकैताें को इस कदर महिमा मण्डित कर गयी कि न्याय व सामजिकता धरी की धरी रह गयी तथा डकैत डकैत न होकर, भगवान विष्णु के अवतार लगने लगे तथा चम्बल की जनता उनकी भक्त तथा अनुयायी लगने लगी ! किन्तु जब यही कलम किसी डकैत पीड़ित परिवार या मुखबिरों के हाथ लगी तो उन्होंने भी अतिश्योक्ति और फर्जीवाड़ें की सीमायें तोड़ कर इसे अभिशाप बताते समूची चम्बल घाटी को अभिशप्त और शापित घोषित कर डाला और चम्बल को दुर्दान्त व भयावह तथा वाहियात व आपराधिक तत्वों की भूमि जैसे शब्दों से नवाज डाला ! परिणाम यह हुआ कि सच तो पीछे ही छूट गया और सब अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग बजाते रहे, चम्बल ने सबकों लिखने का, बोलने का मौका दिया, कईयों की फिल्में और उपन्यास हिट करवा दिये! कई गुमनामों को नामवर बनवा कर चमका दिया, मगर न तो किसी ने चम्बल का अहसान माना न किसी ने सच उगलने की जुर्रत ही की ! लेखकों को और फिल्मकारों को लगता रहा कि जब झूठ धड़ल्ले से मनमाने मोल में बिक रहा है तो सच क्यों बोलें ?                          क्रमश: शेष अगले अंक में जारी                       

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